हमें अपने कार्य को खेल समझकर कर करना चाहिए !!
कार्य और कृत्य के प्रति हमें दृष्टिकोण बदलना होगा। कार्य को खेल समझना चाहिए, कार्य नहीं। कार्य को लीला की तरह, एक खेल की तरह लेना चाहिए। इसके प्रति तुम्हें गंभीर नहीं होना चाहिए। बस ऐसे ही जैसे बच्चे खेलते है। यह निष्प्रयोजन है। कुछ भी पाना नहीं है। बस कृत्य का ही आनंद लेना है।
यदि कभी-कभी तुम खेलो तो अंतर तुम्हें स्पष्ट हो सकता है। जब तुम कार्य करते हो तो अलग बात होती है। तुम गंभीर होते हो। बोझ से दबे होते हो। उत्तरदायी होते हो। चिंतित होते हो। परेशान होते हो। क्योंकि परिणाम तुम्हारा लक्ष्य होता है। स्वयं कार्य मात्र ही आनंद नहीं देता, असली बात भविष्य में, परिणाम में होती है। खेल में कोई परिणाम नहीं होता। खेलना ही आनंदपूर्ण होता है। और तुम चिंतित नहीं होते। खेल कोई गंभीर बात नहीं है। यदि तुम गंभीर दिखाई भी पड़ते हो तो बस दिखावा होता है। खेल में तुम प्रक्रिया का ही आनंद लेते हो।
कार्य में प्रक्रिया का आनंद नहीं लिया जाता। लक्ष्य, परिणाम महत्वपूर्ण होता है। प्रक्रिया को किसी न किसी तरह झेलना पड़ता है। कार्य करना पड़ता है। क्योंकि परिणाम पाना होता है। यदि परिणाम को तुम इसके बिना भी पा सकते तो तुम क्रिया को एक और सरका देते और परिणाम पर कूद पड़ते।
लेकिन खेल में तुम ऐसा नहीं करोगे, यदि परिणाम को तुम बिना खेले पा सको तो परिणाम व्यर्थ हो जाएगा। उसका महत्व ही प्रक्रिया के कारण है। उदाहरण के लिए, दो फुटबाल की टीमें खेल के मैदान में है, बस एक सिक्का उछाल कर वे तय कर सकते है कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा। इतने श्रम इतनी लंबी प्रक्रिया से क्यों गुजरना। इसे बड़ी सरलता से एक सिक्का उछाल कर तय किया जा सकता है। परिणाम सामने आ जाएगा। एक टीम जीत जाएगी और दूसरी टीम हार जाएगी। उसके लिए मेहनत क्या करनी।
लेकिन तब कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। कोई मतलब नहीं रह जाएगा। परिणाम अर्थपूर्ण नहीं है। प्रक्रिया का ही अर्थ है। यदि न कोई जीते और न कोई हारे तब भी खेल का मूल्य है। उस कृत्य का ही आनंद है।
लीला के इस आयाम को तुम्हारे पूरे जीवन मे जोड़ना है। तुम जो भी कर रहे हो, उस कृत्य में इतने समग्र हो जाओ। कि परिणाम असंगत हो जाए। शायद वह आ भी जाए, उसे आना ही होगा। लेकिन वह तुम्हारे मन में न हो। तुम बस खेल रहे हो और आनंद ले रहे हो।
कृष्ण का यही अर्थ है जब वे अर्जुन को कहते है कि भविष्य परमात्मा के हाथ में छोड़ दे। तेरे कर्मों का फल परमात्मा के हाथ में है, तू तो बस कर्म कर। यही सहज कृत्य लीला बन जाता है।
यदि कभी-कभी तुम खेलो तो अंतर तुम्हें स्पष्ट हो सकता है। जब तुम कार्य करते हो तो अलग बात होती है। तुम गंभीर होते हो। बोझ से दबे होते हो। उत्तरदायी होते हो। चिंतित होते हो। परेशान होते हो। क्योंकि परिणाम तुम्हारा लक्ष्य होता है। स्वयं कार्य मात्र ही आनंद नहीं देता, असली बात भविष्य में, परिणाम में होती है। खेल में कोई परिणाम नहीं होता। खेलना ही आनंदपूर्ण होता है। और तुम चिंतित नहीं होते। खेल कोई गंभीर बात नहीं है। यदि तुम गंभीर दिखाई भी पड़ते हो तो बस दिखावा होता है। खेल में तुम प्रक्रिया का ही आनंद लेते हो।
कार्य में प्रक्रिया का आनंद नहीं लिया जाता। लक्ष्य, परिणाम महत्वपूर्ण होता है। प्रक्रिया को किसी न किसी तरह झेलना पड़ता है। कार्य करना पड़ता है। क्योंकि परिणाम पाना होता है। यदि परिणाम को तुम इसके बिना भी पा सकते तो तुम क्रिया को एक और सरका देते और परिणाम पर कूद पड़ते।
लेकिन खेल में तुम ऐसा नहीं करोगे, यदि परिणाम को तुम बिना खेले पा सको तो परिणाम व्यर्थ हो जाएगा। उसका महत्व ही प्रक्रिया के कारण है। उदाहरण के लिए, दो फुटबाल की टीमें खेल के मैदान में है, बस एक सिक्का उछाल कर वे तय कर सकते है कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा। इतने श्रम इतनी लंबी प्रक्रिया से क्यों गुजरना। इसे बड़ी सरलता से एक सिक्का उछाल कर तय किया जा सकता है। परिणाम सामने आ जाएगा। एक टीम जीत जाएगी और दूसरी टीम हार जाएगी। उसके लिए मेहनत क्या करनी।
लेकिन तब कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। कोई मतलब नहीं रह जाएगा। परिणाम अर्थपूर्ण नहीं है। प्रक्रिया का ही अर्थ है। यदि न कोई जीते और न कोई हारे तब भी खेल का मूल्य है। उस कृत्य का ही आनंद है।
लीला के इस आयाम को तुम्हारे पूरे जीवन मे जोड़ना है। तुम जो भी कर रहे हो, उस कृत्य में इतने समग्र हो जाओ। कि परिणाम असंगत हो जाए। शायद वह आ भी जाए, उसे आना ही होगा। लेकिन वह तुम्हारे मन में न हो। तुम बस खेल रहे हो और आनंद ले रहे हो।
कृष्ण का यही अर्थ है जब वे अर्जुन को कहते है कि भविष्य परमात्मा के हाथ में छोड़ दे। तेरे कर्मों का फल परमात्मा के हाथ में है, तू तो बस कर्म कर। यही सहज कृत्य लीला बन जाता है।
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